सत्रहवाँ अध्याय

 

सात-सिरोंवाला विचार, स्व: और दशग्वा ऋषि

 

तो वैदिक मंत्रोंकी भाषा अगिरस् ऋषियोंके द्विविध रूपका प्रतिपादन करती है । एकका संबंध वेदके बहिरंगसे है; इसमें सूर्य, ज्वाला, उषा, गौ, अश्व सोमसुरा, यज्ञिय मन्त्र ये सब एक-दूसरेसे गुंथकर एक प्रकृतिवादसुलभ रूपक बनाते हैं, दूसरे अंतरंग रूपमें इस रूपकमेंसे इसका आन्तरिक आशय निकाला जाता है । अगिर ज्वालाके पुत्र हैं, उषाकी ज्योतियाँ हैं, सोमरस पीनेवाले और देनेवाले हैं, मंत्रके गायक हैं, सदा युवा रहनेवाले और ऐसे वीर हैं कि सूर्य, गौओं एवं धोड़ोंको और सारे ही खजानों-को अंधकारके पुत्रोंके पंजेसे हमारे लिये छीन लाते हैं । पर साथ ही ये सत्यके द्रष्टा, सत्यके शब्दको पा लेनेवाले और उसके बोलनेवाले हैं, और सत्यकी शक्तिके द्वारा ये प्रकाश और अमरताके उस विशाल लोकको हमारे लिये जीत लाते हैं जिसका वेदमें इस रूपमें वर्णन हुआ है कि वह वृहत् है, सत्य है, ॠत है और उस ज्वालाका स्वकीय घर है जिसके कि ये अगिरस् पुत्र हैं । यह भौतिक रूपक और ये आध्यात्मिक निर्देश आपसमें बड़ी घनिष्ठताके साथ गुंथे हुए है और ये एक दूसरेसे अलग नहीं किये जा सकते ।

 

इसलिये हम सामान्य बुद्धिके आधार पर ही इस परिणाम पर पहुँचनेके लिये बाध्य होते हैं कि वह ज्याला जिसका कि ॠत और सत्य अपना घर है स्वयं उस ऋत और सत्यकी ही ज्याला है, कि वह प्रकाश जो सत्यसे और सत्य विचारकी शक्तिसे जीतकर प्राप्त किया जाता है सिर्फ भौतिक प्रकाश नहीं है, वे गौएं जिन्हें सरमा सत्यके पथ पर चलकर पाती है केवल भौतिक पशु नहीं हैं, घोड़े केवल द्राविड़ लोगोंकी भौतिक पशुओंकी वह संपत्ति नहीं हैं जिसे आक्रांता आर्य-जातियोंने जीतकर अपने अधीन कर लिया था, न ही ये सब केवलमात्र भौतिक उषा, इसके प्रकाश और इसकी तेजी से गति करती हुई किरणोंके ही रूपकात्मक वर्णन हैं,  और न वह अंधकार जिसके कि पणि तथा वृत्र रक्षक हैं केवल भारतकी या उत्तरीय ध्रुवकी रात्रियोंका अंधकारमात्र है । हम तो अब यहाँ तक बढ़ चके हैं कि इस

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विषयमें एक युक्तियुक्त कल्पना प्रस्तुत करनेमें समर्थ हैं, जिसके द्वारा हम इस सब आलंकारिक रूपकके असली अभिप्रायको सुलझा सकते हैं और इन ज्योतिर्मय देवों तथा इन दिव्य प्रकाशमान ऋषियोंकी (अर्थात् अंगिरसोंकी ) वास्तविक दिव्यताको खोज निकाल सकते हैं ।

 

अगिरस् ऋषि एक साथ दिव्य और मानव दोनों प्रकारके द्रष्टा हैं । वेदमें ऐसा द्विविध स्वरूप अपने-आपमें केवल इन ऋषियोंके लिये ही असा-धारण या विशिष्ट धर्म नहीं है । वैदिक देवताओंकी भी दो प्रकारकी क्रिया होती है; ये दिव्य हैं और अपने स्वरूपमें पहिलेसे विद्यमान हैं,  पर वे मर्त्य स्तर पर अपनी क्रिया करते हुए मानव हो जाते हैं जब कि ये मनुष्यके अन्दर महान् उत्थानके लिये क्रमश: बढ़ रहे होते हैं । उषा देवीकी स्थितिका वर्णन करते हुए यह भाव बहुत सुन्दर ढंगसे व्यक्त किया गया है, 'देवी जो मर्त्योंके अन्दर मानुषी है', (देवि मर्तेषु मानुषि ); पर अगिरस् ऋषियोंके रूपकमें यह द्विविध स्वरूप एक परम्पराके द्वारा और अधिक पेचीदा हो गया है, उस परम्पराके अनुसार ये मानव पितर हैं, प्रकाशके, मार्गके और लक्ष्यके अन्वेषक हैं । हमें देखना होगा कि यह पेचीदगी वैदिक संप्रदाय और वैदिक प्रतीकवादकी हमारी कल्पना पर क्या प्रभाव डालती है ।

 

अगिरऋषि सामान्यत: संख्यामें सात वर्णित किये गये हैं, वे 'सप्त विप्र:'  हैं जो पौराणिक परम्परा1 द्वारा हम तक सप्तर्षि (सात ऋषियों ) के रूपमें पहुंचे हैं और जिन्हें भारतीय नक्षत्र-विद्याने बृहत् ऋक्षके तारा-मण्डलमें बैठा दिया है । पर साथ ही उन्हें 'नवग्वा' और 'दशग्वा'के रूपमें भी वर्णित किया गया है । यद्यपि ऋ. 6.22.2 में उन प्राचीन पितरोंके विषयमें कहा गया है कि सात द्रष्टा जो नवग्वा थे, (पूर्वे पितरो नवग्वा: सप्त विप्रास: ) तो भी 3.39.5मे हम नवग्वा तथा दशग्वा इन दो विभिन्न श्रेणियोंका उल्लेख पाते हैं, जिनमें दशग्वा संख्यामें दस हैं और नवग्वा शायद नौ हैं, यद्यपि इनके नौ होनेके बारेमें स्पष्ट वर्णन नहीं है-

 

सखा ह पत्र सखिभिर्नवग्वैरभिक्ष्वा सत्यभिर्गा अनुग्मन् ।

सत्यं तदिन्द्रो वशभिर्दशग्वैः सूर्य विवेद तमसि क्षियन्तम् । ।

 

''जहाँ अपने सखाओं नवग्वाओंके साथ एक सखा इन्द्रने गौओंका अनु-सरण करते हुए दस दशग्वाओंके साथ उस सत्यको पा लिया, और उस सूर्यको भी पा लिया जो अंधकारमें रह रहा था ।"  दूसरी ओर ऋ. 4.51.

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1. यह आवश्यक नहीं है कि सप्तर्षियोंके  जो नाम पुराणमें आते हैं वे वही हो जो बैदिक परम्परामें हैं ।

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में हमें अंगिरसोंके बारेमें एक सामूहिक,  एकवचनात्मक वर्णन मिलता है कि ये सात चेहरोंवाले या सात मुखोंवाले, नौ किरणोंवाले और दस किरणों-वाले हैं--(नवत्रवे अङ्गिरे दशग्वे सप्तास्ये ) 10.108.8में हमें एक दूसरे ऋषि 'अयास्य'का नाम मिलता है जो नवग्वा अंगिरसोंके साथ जुड़ा हुआ है ।1 10.67में इस 'अयास्य'के लिये कहा गया है कि यह हमारा पिता है जिसने सत्यमेंसे उत्पन्न होनेवाले सात सिरोंके महान् विचारको पाया है और यह अयास्य इन्द्रके लिये स्तुति-मंत्रोंका गान करता3 है । इसके अनु-सार कि नवग्वा, सात या नौ हैं, अयास्य आठवां या दसवां ऋषि होगा ।

 

परम्परा यह बताती है कि अगिरस् ऋषियोंकी दो श्रेणियोंका पृथक्-पृथक् अस्तित्व है, एक तो नवग्वा जिन्होंने नौ महीने यज्ञ किया और दूसरे दशग्वा जिनके यज्ञका कार्यकाल दस महीने रहा । इस व्याख्याके अनुसार हमें नवग्वा और दशग्वाको इस रूपमें लेना होगा कि ये 'नौ गौओं वाले' और 'दस गौओं वाले हैं और प्रत्येक गौ तीस उषाओंकी द्योतक है जिनसे मिलकर यज्ञके वर्षका एक महीना बनता है । परन्तु कम-से-कम एक संदर्भ तो ऋग्वेदका ऐसा है जो कि ऊपरसे देखनेमें इस परम्परागत व्याख्याके सीधा विरोधमें जाता है । क्योंकि 5.45की 7वीं ऋचा में और फिर 11 वींमें यह कहा गया है कि वे नवग्वा थे, न कि दशग्वा, जिन्होंने दस महीने यज्ञ किया या स्तुति-मंत्रोंका गान किया । यह ७वीं ऋचा इस प्रकार है--

 

अनूनोदत्र हस्तयतो अद्रिरार्चन् येन वश मासो नवग्वा:

ॠतं यती सरमा गा अविन्दद् विश्वानि सत्याङ्गिराश्चकार ।।

 

"यहाँ हाथसे हटाये हुए पत्थरने आवाजकी (या वह हिला ), जिससे कि नवग्वा दश मास तक मंत्रपाठ करते रहे । सत्यकी ओर यात्रा करती हुई सरमाने गौओंको पा लिया; अगिरस्ने सब वस्तुओंको सत्य कर दिया ।''  और ११वीं ऋचामें इस कथनको फिर दोहराया गया है--

 

धियं वो अप्सु दधिषे स्वर्षा ययातरन् दश मासो नवग्वाः ।

अया धिया स्याम देवगोपा अया धिया तुतुर्यामात्यंह: ।। 

 

'मै तुम्हारे लिये जलोंमें ( अर्थात् सात नदियोंमें ) उस विचारको रखता हूं जो स्वर्गको जीतकर हस्तगत कर लेता है3, (यह एक बार फिर उस 

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1.  एह गमन्नृषय: सोमशिता अयास्थो अड़िइरसो नवग्बा: । ( 10.108.8 )

2.  इमां धियं सप्तशीर्ष्णीं पिता न ॠतप्रजातां वृहतीमविन्दत् ।

   तुरीयं स्यिज्जनयद् विश्वजन्योध्यास्य उक्थमिन्द्राय शंसन् ।। ( 10.67.1 )

3. सायणने इसका अर्थ यह लिया है कि 'मैं जलोंके निमित्तसे क्षति करता हूं अर्थात्

  इसलिये कि वर्षा हो,--'धियं स्तुतिम् अप्सु अप्निमित्तं...दधिषे धारयामि |'  पर

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सात सिरोंके विचारका वर्णन आ गया जो सत्यसे उत्पन्न हुआ है और जिसे अयास्यने पाया है ), जिसके द्वारा नयग्वाओंनेदस महीनों को पार किया । इस विचारके द्वारा हम देवोंको अपने रक्षकके रूपमें पा सकें, इस विचारके द्वारा हम पापका अतिक्रमण कर सकें ।' कथन बिल्कुल स्पष्ट है । सायण-ने अवश्य सातवें मन्त्रकी व्याख्या करते हुए एक हलका सा प्रयत्न यह किया है कि 'दश मास' दस महीनेको उसने विशेषण मान लिया है और फिर उसका अर्थ किया है 'दस महीनोंवाले अर्थात् दशग्वा', पर उसने भी इस असंभवसे अर्थको वैकल्पिक रूपमें ही ग्रहण किया है और ग्यारहवीं ऋचामें इसे बिल्कुल छोड़ दिया है, वैकल्पिक रूपमें भी नहीं लिया है ।

 

तो क्या हम यह अनुमान करें कि इस सूक्तका कवि परम्पराको भूल गया था और इसलिये वह दशग्वा तथा नवग्वामें गड़बड़ कर रहा था ? ऐसी कोई कल्पना मानने योग्य नही है । कठिनाई हमारे सामने इसलिये उपस्थित होती है कि हम यह समझ बैठते हैं कि वैदिक ऋषियोंके मनमें नवग्वा तथा दशग्वा ये अंगिरस् ऋषियोंकी दो अलग-अलग श्रेणियाँ थीं । परन्तु इसकी अपेक्षा प्रतीत यह होता है कि वे दोनों अंगिरस्त्वकी (अंगि-रसपनेकी ) दो अलग-अलग शक्तियाँ थीं और ऐसी अवस्थामें नवग्वा ऋषि ही दशग्वा हो सकते थे, यदि ये अपने यज्ञके कालको बढ़ाकर नौके स्थान पर दस महीनेका कर लेते । सूक्तमें 'दश मासो अतरन्' इस प्रयोगसे यह भाव प्रकट होता है कि पूरे दस महीनेके समयको पार कर लेनेमें कोई कठिनाई सामने आती थी । प्रतीत होता है कि यही काल था जिसके बीच-में अन्धकारके पुत्रोंको यज्ञ पर आक्रमण करनेका सामर्थ्य या हौसला हो सकता था; क्योंकि यह सूचित किया गया है कि ऋषि दस महीनोंको केवल तभी पार कर सकते हैं जब वे उस विचारको अपने अन्दर धारण कर लेते हैं जो 'स्व:' अर्थात् सौर लोकको जीत लानेवाला है, पर एक बार जब ये इस विचारकों पा लेते हैं तब निश्चित ही ये देवताओंकी छत्रच्छायामें आ जाते हैं और पापके आक्रमणोंसे पार हो जाते हैं, पणियों और वृत्रोंके द्वारा हो सकनेवाली क्षतियोंसे परे हो जाते हैं ।

 

यह 'स्यः'को जीत लानेवाला विचार (स्वर्षा धी: ) निश्चयसे वही है जो कि सात-सिरोंवाला विचार (सप्तशीर्ष्णी थी: ) है, सात-शिरोंवाला वह

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यहां कारक अधिकरण-बहुवचन है और 'दधिषे' का अर्थ है 'मैं रखता हूं या थामता

हूं' अथबा अध्यात्मपरक अभिप्रायको लें तो 'विचारता हूं' या 'विचार में थामता हूं

अर्थात् ध्यान करता हूं ।' 'धी'की तरह 'धिषणा' का अथ है 'विचार'; इस प्रकार

    'धियं दधिषे' का अर्थ होगा 'मैं विचारता हूं' या 'विचार का ध्यान करता हूं |'

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विचार जो सत्यमेंसे पैदा हुआ है जिसे नवग्वाओंने साथी अयास्यने खोज निकाला है । क्योंकि हमें बताया गया है कि अयास्य इसके द्वारा 'विश्वजन्य' हो गया और सब लोकोंके जन्मोंका आलिंगन करते हुए उसने एक चौथे लोकको या चतुर्व्यूढ लोकको उत्पन्न किया और यह चौथा लोक निचले-तीन लोकों--द्यौ, अन्तरिक्ष तथा पृथिवी-से परेका अतिमानस लोक ही होना चाहिये जो घोरके पुत्र कण्वके अनुसार वह लोक है जहाँ मनुष्य वृत्र का वध कर चुकनेके बाद द्यावा-पृथिवीको पार करके पहुंचते हैं । इसलिये यह चौथा लोक 'स्व: ' ही होगा । अयास्यका सात-सिरोंवाला विचार उसे 'विश्वजन्य' बन जाने योग्य बना देता है, जिसका संभवत: यह अभिप्राय है कि वह आत्माके सब लोकों या जन्मोंको अधिगत (प्राप्त ) कर लेता है, और वह विचार उसे इस योग्य कर देता है कि वह किसी चौथे लोक  (स्व:) को प्रकट या उत्पन्न कर सके (तुरीयं स्विज्जनयद् विश्वजन्य: ), और वह विचार भी जो सात नदियोंमें स्थापित किया गया है और जिससे नवग्वा ऋषि दस महीनोंको पार कर लेने योग्य हो जाते हैं 'स्वर्षा' है अर्थात् वह 'स्व:' पर अधिकार करा देता है । वे दोनों स्पष्टतया एक ही हैं । तो क्या इससे हम इस परिणाम पर नहीं पहुँचते कि वह अयास्य ही है जिसके नवग्वाके साथ आ मिलनेसे नवग्वाओंकी संख्या बढ़कर दस हो जाती है, और जो 'स्व:'को जीत लेनेवाले सात-सिरोंवाले विचारकी अपनी खोजसे उन्हें इस योग्य बना देता है कि वे नौ महीनेके यज्ञको लंबा करके दसवें महीने तक ले जा सकें ? इस प्रकार वे दस दशग्वा हो जाते हैं । इस प्रकरणमें हम इसपर भी ध्यान दे सकते हैं कि सोमके मदका, जिससे इन्द्र 'स्व:'की शक्ति (स्वर्णर ) को प्रकट करता है या बढ़ाता है, इस रूपमें वर्णन हुआ है कि वह दस किरणोंवाला है और प्रकाशक है (दशग्वं वेपयन्तम् 8.12 .2 )

 

यह परिणाम 3.39.5 के संदर्भसे, जिसे हम पहले ही उद्धृत कर आये हैं, पूरे तौरसे पुष्ट हो जाता है । क्योंकि वहाँ हम पाते हैं कि इन्द्र खोयी हुई गौओंके पद-चिह्नोंका अनुसरण तो नवग्वाओंकी सहायतासे करता है, पर यह केवल दस दशग्वाओंकी मददसे ही हो पाता है कि वह उस अनु-सरणके उद्देश्यमें सफल होता है और उस सत्यको, सत्यं तत्, उस सूर्यको जो अन्धकारमें पड़ा हुआ था, पा लेता है । दूसरे शब्दोंमें जब नौ महीने का यज्ञ लंबा होकर दसवें महीनेमें पहुंच जाता है, जब नवग्वा दसवें ऋषि अयास्यके सात-सिरोंवाले विचारके द्वारा दस दशग्वा बन जाते हैं, तभी  'सूर्य' मिल पाता है और 'स्व:'का प्रकाशमान लोक खुल जाता है तथा जीत

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लिया जाता है । 'स्वः'की यह विजय ही यज्ञका और अंगिरस् ऋषियोंसे पूर्ण किये जानेवाले महान् कार्यका लक्ष्य है ।

 

पर महीनोंके अलंकारका क्या अभिप्राय है ? क्योंकि अब यह स्पष्ट हो गया है कि यह एक अलंकार है, मूक रूपक है; इसलिये वर्ष यहाँ प्रतीकरूप है और महीने भी प्रतीकरूप हैं1 । यह एक वर्षके चक्करमें हो पाता है कि खोया हुआ सूर्य और खोयी हुई गौएं फिरसे प्राप्त होती हैं, क्योंकि 10.62.2 में हम स्पष्ट कथन पाते हैं-

 

ऋतेनाभिन्दन् परिवत्सरे वलम् ।

 

'' 'सत्यके द्वारा, एक वर्षके चक्करमें', अथवा सायणने जैसी इसकी व्याख्याकी है कि 'उस यज्ञके द्वारा जो एक वर्ष तक चला', उन्होंने वलका भेदन किया ।''  यह संदर्भ अवश्य उत्तरीय ध्रुववाली कल्पनाका अनुमोदन करता प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ सूर्यके दैनिक नहीं, वार्षिक प्रत्यावर्तन का उल्लेख है । लेकिन अलंकारके इस बाह्य रूपसे हमारा कोई संबंघ नहीं; न ही इसका प्रमाणित हो जाना हमारी अपनी कल्पना पर किसी प्रकारसे असर डालता है; क्योंकि यह बड़ी अच्छी प्रकार हो सकता है कि उत्तरीय ध्रुवकी लंबी रात्रि, वार्षिक सूर्योदय तथा अविच्छिन्न उषाओंके अद्भुत अनुभवको रहस्यवादियोंने आत्मिक रात्रि तथा इसमेंसे कठिनतासे होनेवाले प्रकाशोदयका अलंकार बना लिया हो । पर समयका, महीनों तथा वर्षोंका यह विचार प्रतीकके रूपमें प्रयुक्त किया गया है, यह बात वेदके दूसरे संदर्भोंसे स्पष्ट होती है, विशेषकर बृहस्पतिको कहे गये गृत्समद--के सूक्त 2 .24 से ।

 

इस सूक्तमें वृहस्पतिका वर्णन इस रूपमें किया गया है कि उसने गौओं-को हांका, दिव्य शब्दके द्वारा, ब्रह्मणा, बलको तोड़ डाला, अन्धकारको छिपा दिया और 'स्व:'को सुदृश्य कर दिया2 । इसका पहिला परिणाम यह होता है कि वह कुआं बलपूर्वक तोड़ा जाकर (यमोजसातृणत् ) खुल जाता है, जिसके मुंह पर चट्टान पड़ी हुई है और जिसकी धाराएं शहदकी, मधुकी, सोमके माधुर्यकी हैं, ( 'अश्मास्यम् अवतं मधुधारम्', 2.24.4 ) । चट्टानसे ढका यह शहदका कुआं अवश्य वह आनन्द है या दिव्य मोक्षसुख है जो आनन्दमय अत्युच्च त्रिगुणित लोकमें रहती है, यह त्रिगुणित लोक 

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    1. देखो कि पुराणों में युग, पल, मास आदि सब प्रतीकरूप हैं और यह कहा यया है

      कि मनुष्य का शरीर संवत्सर है ।

    2. उद् गा आजदभिनद् बह्यणा वलमगूहत्तमो व्यचक्षयत् स्व: । (ऊ. 2.24.3 )

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है पौराणिक संप्रदायके सत्य, तपस् और जन-लोक जो सत्, चित्-तपस् और आनन्द इन तीन उच्चतम तत्वों पर आश्रित हैं । इन तीनके अधोभागमें चौथा वेद का 'स्व:' और उपनिषद् और पुराणोंका 'मह:' है, जो सत्यका लोक है ।1  इन चारोंसे मिलकर चतुर्गुणित चौथा लोक बनता है, (तुरीय, नीचेके तीन लोकोंकी अपेक्षासे भी चौथा ) । ऋग्वेदमें इन चारका वर्णन इस रूपमें आया है कि ये चार अत्युच्च तथा गुह्य स्थान हैं और 'उच्चतर चार नदियों'के आदिस्रोत हैं । तो भी यह ऊपरका चतुर्गुणित लोक कहीं-कहीं दोमें विभक्त हुआ प्रतीत होता है, 'स्व:' जिसका अधोभाग है और  'मय:' या दिव्य मोक्षसुख शिखर है, जिससे कि आरोहण करते हुए आत्मा-के पांच लोक या जन्म (दो ये और तीन निम्नतर ) हो जाते हैं । अन्य तीन नदियां सत्ताकी तीन निम्नतर शक्तियाँ हैं, जिनसे तीन निम्न लोकों-के तत्त्व निर्मित होते हैं ।

 

इस रहस्यमय शहदके कुएंको वे सब पीते हैं जो 'स्व:'को देखनेमें समर्थ होते हैं और वे इसके लहराते हुए माधुर्यके स्रोतको खोलकर एक साथ कई धाराओंमें प्रवाहित कर देते हैं :--

 

मेव विश्वे पपिरे स्यर्दृशो बहु साकं सिसिचुरुत्समुद्रिणम् ।। 2.24.4 ।।

 

एक साथ प्रवाहित की गयी बहुत-सी धाराएँ वे ही सात नदियाँ हैं जो इन्द्रके द्वारा वृत्रका वधकर चुकनेके बाद पर्वतसे नीचेकी ओर बहाई जाती हैं । ये सत्यकी धाराएँ या नदियाँ हैं (ऋतस्य धारा:), और ये हमारी कल्पनाके अनुसार सचेतन सत्ताके उन सात तत्वोंकी द्योतक हैं जो सत्य और आनन्दमें अपनी दिव्य परिपूर्णतामें प्रतिष्ठित होते हैं । यही कारण है कि सात-सिरोंवाले विचारको (सात-सिरोवाले विचारसे अभिप्राय है दिव्य सत्ताका ज्ञान जिसके सात सिर या शक्तियाँ हैं, या बृहस्पतिका वह ज्ञान जो सात-किरणोंवाला है, 'सप्तगुम्' ) जलोंमें, सात नदियोंमें सुदृढ़ करना या विचार द्वारा स्थापित करना होता है, भाव यह है कि दिव्य 

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     1. उपनिषद् तथा पुराणोंमें 'स्व' और 'द्यौ' में कोई फर्क नहीं किया गया है | इसलिये

      यह आवश्यक हुआ कि 'सत्यके लोक' के लिये एक चौथा नाम ढ़ूंढ़ा जाय और यह 

      'मह:' मिल गया है, जिसके विषय में तैत्तिरीय उपनिषद् में यह कहा है कि महा-

      चमस्यने इसे चौथी व्याहृत्तिके रूपमें जाना था, जब कि शेष तीन व्याहृतयां थीं,

      स्व:, भुवः और भू: अर्थात बेदके'द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथिवी | (देखो, तैत्तिरीय 5.1--

      भूर्भुव: सुवरिति वा एसास्तिस्त्रो व्याहृतय: । तासामु ह स्मैतां चतुर्थी महाचमस्य:

      प्रवेदयते इति ।

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चेतनाके सात रूपोंको दिव्य सत्ताके सात रूपों या गतियोंमें रखना होता है; (धियं वो अप्सु दधिषे स्वर्षाम् ) 'मैं स्वर्विजयी विचारको जलोंमें रखता हूँ ।'

 

स्वर्द्रष्टाओं (स्वर्दृशः ) की आखोंके सामने 'स्व:' के सुदृश्य हो जानेसे और उनके मधुके कुएँको पीनेसे तथा उसमेंसे दिव्य जलोंको बाहर प्रवाहित करनेसे यह होता है कि नये लोक या सत्ताकी नयी अवस्थाएँ प्रकाशमें आ जाती हैं, यह बात हमें अगली ॠचा 2.24.5 में स्पष्ट रूपसे कही मिलती है--

 

सना ता काचिद् भुवना भवीत्वा माद्भि: शरद्भिभि र्दुरो वरन्त व:

अयतन्ता चरतो अन्यदन्यदिद् या चकार वयुना ब्रह्मणस्पतिः ।।

 

'ये कोई सनातन लोक (सत्ताकी अवस्थाएँ ) हैं जिन्हें आविर्भूत होना है; महीनों और वर्षोके द्वारा उनके द्वार तुम्हारे लिये बन्द1 हैं (या खुले हैं ); बिना ही प्रयत्नके एक (लोक ) दूसरे में चला जाता है, और इन्हींको ब्रह्मणस्पतिने ज्ञानके लिये व्यक्त किया है ।' ये चार (या दो) सनातन लोक हैं जो 'गुहा'में छिपे हुए हैं, सत्ताके ये गुह्य, अनभिव्यक्त या पराचेतन अंश हैं जो यद्यपि अपने-आपमें सत्ताकी सनातन रूपसे विद्यमान अवस्थाएँ  (सना भुवना ) हैं पर हमारे लिये ये असत् हैं और भविष्यमें हैं, इन्हें सद्रूपमें लाया जाना या रचा जाना है । इसलिये वेदमें स्व:के लिये कहीं तो यह कहा गया है कि उसे दृश्य किया गया (जैसे यहाँ, व्यचक्षयत् स्व: ) या ढूंढ़ लिया गया और हस्तगत कर लिया गया (अविदत्, असनत् ), और कहीं यह कहा गया है कि उसे रचा गया (भू, कृ) ।

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ऋषि कहता है कि वे गुह्य सनातन लोक समयकी गतिके द्वारा, महीनों और वर्षों द्वारा, हमारे लिये बन्द पड़े हैं; इसलिये स्वभावत: हमें समयकी गति द्वारा ही इन्हें अपने अन्दरे खोज लेना है, प्रकाशित करना है, जीतना है, रचना है, फिर भी, एक अर्थमें, समयके विरोधमें जाकर । मुझे लगता है कि एक आन्तरिक या आध्यात्मिक समयमें होनेवाला यह विकास वही है जिसे यज्ञिय वर्षके और दस महीनेके प्रतीकोंसे प्रकट किया गया है, जो

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  1. सायणका कहना हैं कि यहां 'वरन्त' का अर्थ है 'खुले हुए' जो बिल्कुल सम्मव है । पर आम तौर से 'वृ' का अर्ध भेड़ना, बन्द करना, ढक देना यही होता है, विशेषकर तब जब कि इसका प्रयोग उस पहाड़ी के द्वारों के लिये आता है जहांसे नदियां निकलकर बहती हैं और गौएं बाहर आती हैं; वृत्र दरवाजों को बन्द करनेवाला है | खोलना अर्थ 'वि-वृ' और 'अप-वृ' का होता है । तो मी यदि यहां 'वरन्त' का अर्थ खोलना ही हो, तो उससे हमारा पद्य और अदिक ' प्रबल ही होता है ।

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वर्ष और महीने उससे पहले बिताने होते हैं जब कि आत्माका प्रकाशक मन्त्र (ब्रह्म ) सात-सिरोंवाले उस स्वर्विजयी विचारको ढॅूढ़ लेने योग्य होता है जो अन्तमें चलकर हमें वृत्र और पणियोंकी सब क्षतियोंसे पार कर देता है ।

 

दियों और लोकोंका सम्बन्ध हमें 1.62 में स्पष्ट रूपसे मिलता है, जहाँ इन्द्रके विषयमें यह वर्णन आया है कि वह नवग्वाओंकी सहायतासे पर्वतको तोड़ता है और दशग्वाओंकी सहायतासे वलका भेदन करता1 है । अगिरऋषियोंसे स्तुति किया गया इन्द्र उषा, सूर्य और गौओंके द्वारा अन्धकारको खोल देता है, वह पार्थिव पर्वतकी ऊपरकी चौरस भूमिको फैलाकर विस्तृत कर देता है और द्यौके उच्चतर लोकको थाम लेता है2 । क्योंकि चेतनाके उच्चतर स्तरोंको खोल देनेका परिणाम होता है भौतिक स्तरके विस्तारका बढ़ना और मानसिक स्तरकी उच्चताका और ऊँचा होना । ऋषि नोघा आगे कहता है, ''यह सचमुच उसका सबसे अधिक महान् कार्य है, उस कर्ताका सुन्देरतम कर्म है (दस्मस्य चारुतममस्ति वंस: ) कि चार उच्चतर नदियाँ मधुकी धाराएँ बहाती हुई कुटिलताके दो लोकोंको पोषण देती हैं ।''

 

उपह्वरे यदुपरा अपिन्वन् मध्यर्णसो नद्यश्चतस्र: । ( 1 .62 .5 )

 

यह फिर वही मधुकी घाराओंवाला कुआँ आ गया जो अपनी अनेक धाराओंको एक साथ नीचे प्रवाहित करता है, ये धाराएँ दिव्य सत्ता, दिव्य चेतनाशक्ति, दिव्य आनन्द, दिव्य सत्यकी वे चार उच्चतर नदियाँ हैं जो अपने माधुर्यके प्रवाहके साथ मन और शरीरके दो लोकोंके अन्दर उतरकर उन्हें पालती-पोसती हैं । ये दो लोक, ये रोदसी, साधारणत: कुटिलताके अर्थात् अनृतके लोक हैं-ऋत या सत्य सरल है और अनृत या असत्य कुटिल है--क्योंकि ये लोक अदिव्य शक्तियों, वृत्रों तथा पणियों, अन्धकार तथा विभक्तताके पुत्रोंसे होनेवाली क्षतियोंके लिये खुले होते हैं । ये अब ऐसे सत्य एवं ज्ञानके रूप, वयुना, बन जाते हैं जो बाह्य कर्मके साथ संगति रखता है । गृत्समदके 'चरतो अन्यद् अन्यद्' और 'या चकार वयुना ब्रह्मण-स्थति:' --इन वचनोंका अभिप्राय स्पष्टत: यही है | ऋषि आगे चलकर अयास्यके उस कर्मका परिणाम बताता है जिसे वह पृथिवी और द्यौके सत्य, सनातन तथा एकीभूत रूपको खोलकर प्रकट करनेके लिये करता है । 

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1. स सुष्टुभा स स्तुभा सप्त बिप्रै: स्वरेणाब्रि स्वयों नवग्यै : ।

   सरष्युभि: फलिगभिन्द्र शन वलं रवेण दरयो दशग्वै: ।। ( 1.62.4 ) 

2. गृणानो अङ्गिरोभिर्दस्म विवरुषसा सूर्येंण गोभिरन्ध:

  वि भम्या अप्रथय इन्द्र सानु दिवो रज उपरमस्तभाय: ।। ( 1 .62 .5 )

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''अयास्यने अपने स्तुतिमंत्रोंसे सनातन और एक घोंसलेमें रहनेवाले दोको खोलकर उनके द्विविध रूपों ( दिव्य तथा मानवीय ? ) में प्रकट कर दिया, पूर्ण रूपसे कार्यसिद्धि करते हुए उसने पृथिवी और द्यौको ( व्यक्त हुए पराचेतनके, 'परमं गुह्यम्'के ) सर्वोच्च व्योममें थाम लिया, जैसे भोक्ता अपनी दो पत्नियोंको ।''1 आत्मिक जीवनके सनातन आह्लादमें भरकर आत्माका अपनी दिव्य रूपमें परिणत हुई मानसिक तथा शारीरिक सत्तामें रस लेनेका इससे अघिक स्पष्ट और सुन्दर आलंकारिक वर्णन नहीं हो सकता था ।

 

ये विचार और इसमें आये कई वाक्यांश बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे गृत्समदके सूक्तमें आते हैं । नोधा रात्रि और उषाके, काली भौतिक चेतना त्तथा चमकीली मानसिक चेतनाके संबंधमें कहता है कि वे फिर नवीन रूपमें जन्म लेकर ( पुनर्भुवा ) द्यौ और पृथिवीके इधर-उधर अपनी स्वकीय गतियोंसे एक दूसरीके अन्दर चली जाती हैं2, स्वेभिरेवै:..... चरतो अन्यान्या; एक ऐसी सनातन मित्रतामें आबद्ध होकर एक दूसरीके अंदर चली जाती हैं जिस मित्रताको उनका पुत्र उच्च कार्यसिद्धि द्वारा करता है और वह उन्हें इस प्रकार थामता है । सनेमि सख्यं स्यपस्यमान: सूनुर्दाधार शवसा सुदंसा: ।९।  नोधाके सूक्तकी ही तरह गृत्समदके सूक्तमें भी अगिरस् सत्यकी प्राप्ति और असत्यके अनुसंधान द्वारा 'स्व:' अधिगत करते हैं,--उस सत्यको अधिगत करते हैं जहाँसे वे मूलत: आये हैं और जो सभी दिव्य 'पुरुषों'का 'स्वकीय घर' है । 'वे जो लक्ष्यकी ओर अग्रसर होते हैं और पणियोंकी निधिको पा लेते हैं, उस परम निधिको जो गुहामें छिपी पड़ी थी; वे ज्ञानको अपने अन्दर रखते हुए और अनृतोंको देखते हुए फिर उठकर वहाँ चले जाते हैं जहाँसे वे आये थे और उस लोकमें प्रविष्ट हो जाते हैं । सत्यसे युक्त असत्यों पर दृष्टि डालते हुए वे द्रष्टा फिर उठकर महान् पथपर आ जाते है-;3 महस्पथः, सत्यके पथपर या महान् विस्तृत लोकमें जो उपनिषदोंका 'मह:' है । 

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1.द्विता वि वव्रे सनजा सनीडे अयास्यः स्तयमानेभिरकैं:

 भगो न मेने परमे व्योमन्नधारयद्रोदसी सुदंसा: ।। ( 1 .62.7 )

2.सनाद् दिवं परि भूमा विरूपे पुनर्भुया युवती स्वेभिरेवै:

 कृष्णेभिरक्तोषा रुशद्मिर्वपुर्भिरा चरतो अन्यान्या ।। (1 .62 .8)

3.अभिनक्षन्तो अभि ये तमानशुर्निषिं पणीनां परमं गुहा हितम् ।

  ते विद्वांस: प्रतिचक्ष्यानृता पुनर्यत उ आयन् तदुदीयुराविशम् ।।

  ॠतावान: प्रतिचक्ष्यानृता पुनरात आ तस्थुः कवयो महस्पथः ।

(2.24.6-7 )

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अब हम वेदके इस रूपककी गुत्थीको सुलझाना आरम्भ करते हैं । बृहस्पति है सात किरणोंवाला विचारक, 'सप्तगुः', 'सप्तरश्मि:', वह सात चेहरों या सात मुखोंवाला अगिरस् है, जो अनेक रूपोंमें पैदा हुआ है, 'सप्तास्य: तुविजातः', नौ किरणोंवाला है, दस किरणोंवाला है । सात मुख सात अगिरस् हैं, वे उस दिव्य शब्द (ब्रह्म ) को दुहराते हैं जो सत्यके स्थानसे, 'स्यः'से आता है और जिसका स्वामी है बृहस्पति (ब्रह्मणस्पति: ) । साथ ही प्रत्येक मुख बृहस्पतिकी सात किरणोंमेंसे एक-एकका सूचक है, इसलिए ये सात द्रष्टा, 'सप्त विप्राः', 'सप्त ऋषयः' हैं, जो ज्ञानकी इन सात किरणोंको पृथक्-पृथक् शरीरधारी बना देते हैं । फिर ये सात किरणें सूर्यके सात चमकीले घोड़े, 'सप्त हरित:' हैं और इनके आपसमें मिलकर पूर्णतया एक हो जानेसे अयास्यका सात-सिरोंवाला विचार बन जाता है, जिसके द्वारा खोया हुआ सूर्य फिरसे प्राप्त होता है । फिर वह विचार सात नदियोंमें, सत्ताके (दिव्य और मानव ) सात तत्त्वोंमें स्थापित किया जाता है, जिनकी समष्टि (जोड़ ) परिपूर्ण आत्मिक सत्ताका आधार बनती है । यदि हम अपनी सत्ताकी इन सात नदियोंको जीत लेते हैं जिन्हें वृत्रने रोक रखा है और इन सात किरणोंको जीत लेते हैं जिन्हें वलने रोक रखा है, अपनी उस पूर्ण दिव्य चेतनाको अधिगत कर लेते हैं जो सत्यके स्वतन्त्र अवतरणके द्वारा सारे अनृतसे मुक्त हो गयी है, तो इससे 'स्व:'का लोक सुरक्षित रूपसे हमारे अधिकारमें हो जाता है और हमारी मानसिक तथा भौतिक सत्ता हमारे दिव्य तत्त्वोंके अन्तःप्रवाह द्वारा अन्धकार, असत्य व मृत्युसे ऊपर उठकर दिव्य सत्तामें परिणत हो जाती है और हमें उससे मिलनेवाला आनन्द उपलब्ध हो जाता है । यह विजय ऊर्ध्वयात्राके बारह काल-विभागोमें समाप्त होती है, इन बारह काल-विभागोंका प्रतिनिधित्व करनेवाले यज्ञिय वर्षके बारह महीने हैं; यह एक एक काल-विभाग एकके बाद एक सत्यकी अधिकात्तिक बृहत् उषाको लाता हुआ आता है, तबतक जबतक कि दसवेंमें पहुँचकर विजय सुरक्षित तौरसे नहीं हो जाती । नौ किरणोंका और दस किरणोंका बिलकुल ठीक-ठीक अभिप्राय क्या हो सकता है, यह अपेक्षाकृत अधिक कठिन प्रश्न है और अबतक हम इस स्थितिमें नहीं हैं कि इसे हल कर सकें; पर अभी तक जो प्रकाश हमें मिल चुका है, वह भी ऋग्वेदके इस संपूर्ण रूपकके प्रधान भागको प्रकाशित कर देनेके लिये पर्याप्त है ।

 

वेदके प्रतीकवादका आधार यह है कि मनुष्यका जीवन एक यज्ञ है, एक यात्रा है, एक युद्धक्षेत्र है । प्राचीन रहस्यवादी अपने सूक्तोंका विषय मनुष्यके आध्यात्मिक जीवनको बनाते थे, पर उनके अपने लिये वे मर्त रूप-

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में आ जायें और जो अपात्र हैं उनसे इनका रहस्य छिपा रहे इन दोनों उद्देश्योंसे वे इसे कवितामय अलंकारोंमें चित्रित करते थे और उन अलंकारों-को वे अपने युगके बाह्य जीवनमेंसे लिया करते थे । वह जीवन मुख्यतया पशुपालकों और कृषकोंका जीवन था, क्योंकि उस समयका जनसमुदाय युद्धों-के कारण और जातियोंके एक स्थानसे उठकर अपने राजाओंके नीचे दूसरे स्थान पर जाते रहनेके कारण बदलता रहता था । और इस सारी क्रियामें यज्ञके द्वारा देवताओंकी पूजा सबसे अधिक गंभीर और उज्ज्वल वस्तु हो गयी थी, शेष सब क्रियाएं इसीमें आकर इकट्ठी हो गयी थीं । क्योंकि यज्ञके द्वारा वर्षा होती थी जिससे भूमि उपजाऊ बनती थी, यज्ञ द्वारा पशुओं के रेवड़ और घोड़े मिलते थे जिनका होना शान्तिकालमें और युद्धमें आव-श्यक था, सोना मिलता था, भूमि (क्षेत्र ) मिलती थी, नौकर-चाकर मिलते थे, वीर योद्धा लोग मिलते थे जो महत्ता और प्रभुताको कायम करते थे, रणमें विजय मिलती थी, स्थल-यात्रा और जल-यात्रामें सुरक्षा मिलती थी, जो यात्रा उस जमानेमें बड़ी मुश्किल और खतरनाक होती थी, क्योंकि आवा-गमनके साधन बहुत कम थे और अन्तर्जातीय संगठन बड़ा ढीला था । उस बाह्य जीवनके सारे मुख्य-मुख्य रूपोंको जो उन्हें अपने चारों ओर दिखायी देते थे रहस्यवादी कवियोंने ले लिया और उन्हें आन्तरिक जीवनके सार्थक अलंकारोंमें परिणत कर दिया । मनुष्यके जीवनको इस रूपमें रखा गया है कि वह देवोंके प्रति एक यज्ञ है, या इस रूपमें कहा गया है कि वह एक यात्रा है और इस यात्राको कहीं खतरनाक जलोंको पार करनेके अलं-कारसे प्रकट किया गया है और कहीं इस रूपसे कि वह जीवनकी पहाड़ी-के एक स्तरसे दूसरे स्तर पर आरोहण करना है, और, तीसरे इस मनुष्य-जीवनको इस तरह प्रकट किया गया है कि वह शत्रु-राष्ट्रोंके विरुद्ध एक संग्राम है । पर इन तीनों अलंकारोंको जुदा-जुदा नहीं रखा गया है । यज्ञ भी एक यात्रा है; सचमुच यज्ञको स्वयं इस रूपमें वर्णित किया गया है कि वह है दिव्य लक्ष्यकी ओर चलना, यात्रा करना;  इस यात्रा और इस यज्ञ दोनोंके विषयमें लगातार यह कहा गया है कि ये अंधकारमयी शक्तियोंके विरुद्ध एक संग्राम हैं ।

 

अंगिरसोंके कथानकमें वैदिक रूपकके ये तीनों प्रधान रूप आ गये हैं और आकर इकट्ठे जुड़ गये हैं । अंगिरस् 'प्रकाश'के यात्री हैं । 'नक्षन्तः' और 'अभिनक्षन्तः' ये दोनों उनकी विशेष स्वाभाविक क्रियाका वर्णन करने-के लिये प्रयुक्त किये गये हैं । वे ऐसे हैं जो लक्ष्यकी ओर यात्रा करते हैं और सर्वोच्च लक्ष्यको पा लेते '' :-

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अभिनक्षन्तो अभि ये तमाशुर्निर्षि परमम् (2 .246 )

 

उनकी क्रियाका इसलिये आवाहन किया गया है कि वे मनुष्यके जीवनको उसके लक्ष्यकी ओर और अधिक आगे ले चलें -

 

सहस्रसावे प्र तिरन्त आयु: । ( 3.53.7 )

 

पर यह यात्रा भी, यदि मुख्यत: यह एक खोज है, छिपे हुए प्रकाशकी खोज है, तो अंधकारकी शक्तियोंके विरोधके कारण एक साहस-कार्य और एक संग्राम बन जाती है । अगिरस् उस संग्रामके वीर और योद्धा हैं, 'गोषु योधाः' । इन्द्र उनके साथ प्रयाण करता है, उनके इस रूपमें कि वे पथके यात्री हैं, 'सरष्युभि:', इस रूपमें कि वे सखा हैं, 'सखिभिः', इस रूपमें कि वे द्रष्टा हैं और पवित्र गानके गायक हैं, 'ऋग्मिभि:', कविभिः', पर साथ ही इस रूपमें भी कि वे संग्रामके योद्धा हैं 'सत्यभिः' । जब इन अंगिरसोंके बारेमें कुछ कहना होता है तो इन्हें प्रायः 'नृ' या 'वीर' नामसे याद किया जाता है, जैसे इन्द्रके लिये कहा गया है कि उसने जग-मगाती हुई गौओंको 'अस्माकेभि: नुभिः', ''हमारे नरोंके द्वारा'' जीता । उनकी सहायतासे शक्तिशाली बनकर इन्द्र यात्रामें विजय पाता है और लक्ष्य तक पहुँचता है, 'नक्षद्दाभं ततुरिम्' । पर यह यात्रा या प्रयाण उस मार्ग पर होता है जिस मार्गको स्वर्गकी कुतिया सरमाने खोजकर पाया है, जो सत्यका मार्ग है, ''ॠतस्य पन्था:'', और जो सत्यके लोकोंकी ओर लेजाने-वाला महान् पथ, 'महस्पथ:'  है । अर्थात् साथ ही यह यात्रा यज्ञिय यात्रा है; क्योंकि इस यात्राकी मंजिलें वैसी ही हैं जैसे नवग्वाओंके यज्ञके काल-विभाग है'; और यह यात्रा यज्ञकी तरह ही सोमरस तथा पवित्र शब्दकी शक्तिसे संपन्न होती है ।

 

शक्ति, विजय और सिद्धिके लिये साधन-रूपसे सोम-रस का पान करना वेदके व्यापक अलंकारोंमेंसे एक है । इन्द्र और अश्विन् अव्वल दर्जेके सोम-पायी हैं,  पर वैसे सभी देवता इसके अमरत्व प्रदान करनेवाले घूंट में हिस्सा लेते हैं । अगिरस् भी सोमकी शक्तिमें भरकर विजयी होते हैं । सरमा पणियोको भय दिखाती है कि देखो, अयास्य और नवग्वा अगिरस् अपने सोम-जनित आनन्दकी तीक्ष्ण तीव्रतासे युक्त होकर आयेंगे :--

 

एह गमन्नुषयः सोमशिता अयास्यो अङिरसो नवग्वा: ( 10.108.8 )

 

यह वह महती शक्ति है जिससे मनुष्योंमें सत्यके मार्गका अनुसरण करनेका बल आ जाता है । ''सोमके उस आनंदको हम चाहते हैं जिससे, ओ इन्द्र ! तूने 'स्यः'की शक्तिको (या स्व:की आत्माको, स्वर्णरम् ) समृद्ध किया, दस किरणोंवाले और ज्ञानका प्रकाश देनेवाले (दशग्वं वेपयन्तम,)

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उस आनंदको जिससे तूने समुद्रफो पोषित किया है; सोमके उस मदको जिसके द्वारा तू महान् जलों (सात नदियों ) को रथोंकी तरह आगे हांककर समुद्रमें पहुँचा देता है--उसे हम चाहते हैं,  इसलिये कि हम सत्यंके मार्ग पर यात्रा कर सकें ।"1 पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे । सोमकी शक्ति आने पर ही पहाड़ी टूटकर खुल जाती है, अंधकारके पुत्र पराजित हो जाते हैं । यह सोम-रस वह माधुर्य है जो ऊपरके गुह्य लोक की धाराओंमेंसे बहकर आता है, यह वह है जो सात नदियोंमें प्रवाहित होता है, यह वह है जिसके साथ होने पर घृत, रहस्यमय यज्ञका घी, सहज प्रेरणा बन जाता है, यह वह मधुमय लहर है जो जीवन-समुद्रसे उठती है । ऐसे अलंकारों-का केवल एक ही अर्थ हो सकता है; यह (सोम ) दिव्य आनंद है, जो सारी सत्तामें छिपा हुआ है, जो यदि एक बार अभिव्यक्त हो जाय, तो यह जीवनकी सब ऊँची, उत्कृष्ट क्रियाओंको सहारा देता रहता है और यह वह शक्ति है जो अंतमें मर्त्यको अमर कर देती है, यह 'अमृतम्' है, देवोंका अमृत है ।

 

पर वह वस्तु जो अंगिरसोंके पास रहती है मुख्यत: शब्द है; उनका द्रष्टा (ऋषि ) होना उनका सबसे अधिक विशिष्ट स्वरूप है । वे हैं--ब्राह्यणास: पितर: सोम्मास:..... ॠतावृधः (6.75.10 )

 

अर्थात् वे पितर हैं जो सोमसे भरपूर हैं और जिनके पास शब्द है और, इसी कारण जो सत्यको बढ़ानेवाले हैं । इन्द्र उन्हें (अंगिरसोंको ) मार्ग पर प्रेरित करनेकी इच्छा रखता हुआ उनके गाकर व्यक्त किये गये विचारोंके साथ अपने-आपको जोड़ता है और उनकी आत्माके शब्दोंको पूर्णता व शक्ति देता है:--

 

सो अङ्गिरसामुचथा जुजुश्वान् ब्रह्मा तूतोदिन्द्रो गातुमिष्णन् । (2.20.2 )

 

जब इन्द्र अंगिरसोंकी सहायतासे ज्योतिमें और विचारकी शक्तिमें समृद्ध हो जाता है तभी वह अपनी विजय-यात्राको पूर्ण कर पाता है और पर्वत पर स्थित अपने लक्ष्य तक पहुंच पाता है, 'उसमें हमारे पूर्व पितर, सात द्रष्टा, नवग्वा, अपनी समृद्धिको बढ़ाते हैं उसे बढ़ाते हैं जो अपने प्रयाणमें विजयी होनेवाला है, जो विध्न-वाधाओंको तोड़फोड़कर (अपने लक्ष्य तक ) तैर जाता है, पर्वत पर खड़ा हुआ है, जिसकी वाणी अहिंसित है, जो अपने विचारोंसे सबसे अधिक ज्योतिष्मान् और बलवान् है ।'

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1.  येना दशग्वामघ्रिगुं वेपयन्तं स्वर्णरम् । येना समुद्रमाविथा तमीमहे ।।

  येन सिन्ध्ं महीरपो रथां इव प्रचोदय: । पन्यामृतस्य यातवे तमीमहे ।।

(8. 12 .2-3 )

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तमु नः पूर्वे पितरो नवग्वाः सप्त विप्रासो अभि वाजयन्तः ।

नक्षद्दाभं ततुरिं पर्वतेष्ठामद्रोघवाचं मतिभि: शविष्ठम् ।। ( 6.22.2 ) ।| 

 

'ऋक्'के, प्रकाशके मन्त्रके गानसे ही वे हमारी सत्ताकी गुहामें छिपी हुई सौर ज्योतियोंको पा लेते हैं, अर्चन्तो गा अविन्दन् । 'स्तुभ्'से, सात द्रष्टाओंके मन्त्रोंके आधारभूत छन्दसे, नवग्वाओंके कम्पन करते हुए स्वरसे ही इन्द्र 'स्व:'की शक्तिसे परिपूर्ण हो जाता है, 'स्वरेण स्वर्य:', और दश-ग्बाओंकी आवाजसे, 'रव'से ही वह 'वल'के टुकड़े-टुकड़े कर डालता है  ( 1.62..4 ), क्योंकि यह 'रव' उच्चतर लोककी आवाज है, वह वज्र-निर्घोष है जो इन्द्रकी विद्युत्प्रभामें होता है, अंगिरसोंकी अपने मार्ग पर प्रगति द्युलोकोंके इस 'रव'की अग्रगामिनी होती है ।

 

प्र ब्रह्माणो अङ्गिइरसो नक्षन्त प्र क्रन्दनुर्नभन्यस्य वेतु । ( 7.42.1 )

 

बृहस्पतिकी आवाज द्यौकी गर्जना है, बृहस्पति वह अगिरस् है जो सूर्य-को, उषाको, गौको और शब्दके प्रकाशको खोज लेता है, बृहस्पतिरुषखं सूर्य गामर्क विवेद स्तनयन्निव द्यौ: ।' सत्य-मंत्रके, उस सत्य विचारके जो सत्यके छन्दमें प्रकट होता है, परिणामस्वरूप ही, छिपी हुई ज्योति मिल जाती है और उषाका जन्म हो जाता है;

 

गूळहं ज्योति: पितरो अन्वविन्वन् सत्यमन्त्रा अजनयन्नुषासम् । ( 7.76.4 )

 

क्योंकि वे अंग्रिरस् हैं जो यथातथ वचन बोलते हैं इत्था वदद्भि: अङिगरोभी-रोभि: । ( 6.18.5 )

 

जो ऋक्के स्वामी हैं, जो पूर्ण रूपसे अपने विचारोंको रखते हैं;

स्याधीऋॅक्वभि: । ( 6.32..2 )

 

''वे द्यौके पुत्र हैं, शक्तिशाली देवके वीर सिपाही हैं, जो सत्य कथन करते हैं और सरलताका विचार करते हैं और इस कारण जो इस योग्य हैं कि जगमगाते हुए ज्ञानके स्थानको धारण कर सकें और यज्ञके अत्युच्च धामको मनोगत कर सकें'';

 

ऋतं शंसन्त ऋजु दीध्याना दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीरा:

विप्र पदमङ्गिरसो दधाना यज्ञस्य धाम प्रथमं मनन्त ।। ( 10.67.2 )

 

यह असंभव है कि ये सब इस प्रकारके वर्णन केवल यही अर्थ देनेवाले हों कि कुछ आर्य ऋषियोंने एक देवता और उसके कुत्तेका अनुसरण करके गुफामें रहनेवाले द्रविड़ोंसे चुरायी हुई गौएं फिर प्राप्त कर लीं या रात्रिके अंधकारके बाद उषाका फिर उदय हो गया । उत्तरी ध्रुवकी उषाकी अद्-भुतताएं भी स्वयं इनका कुछ स्पष्टीकरण देनेमें सर्वथा अपर्याप्त हैं । इन अलंकारोंमें जो साहचर्य है, इनमें जो शब्द (ब्रह्य), विचार (धी) , सत्य,

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यात्रा करने और असत्य पर विजय पा लेने आदिका विचार है--जो विचार कि हमें, इन सूक्तोंमें सर्वत्र मिलता है और जिसपर इन सूक्तोंमें लगातार जोर दिया गया है--उसका स्पष्टीकरण इस तरह किसी प्रकार भी नहीं किया जा सकता ।

 

जिस कल्पनाको हम प्रस्थापित कर रहे हैं केवल वही इस बहुविध रूपकको खोल सकती है, इसमें एकता स्थापित कर सकती है और यह जो असंग-तियोंका मिश्रण-सा दिखायी देता है उसमें आसानीसे दीख जानेवाली स्पष्टता और संगति ला सकती है और यह एक ऐसी कल्पना है जो कहीं बाहरसे नहीं लायी गयी बल्कि स्वयं मन्त्रोंकी ही भाषा तथा निर्देशोंसे सीधी निकलती है । सचमुच, यदि एक बार हम केंद्रभूत विचारको पकड़ लें और वैदिक ऋषियोंकी मनोवृत्ति तथा उनके प्रतीकवादके नियमको समझ लें तो कोई भी असंगति और अव्यवस्था शेष नहीं रहती । वेदमें प्रतीकोंकी एक नियत पद्धति है जिसमें कि, सिवाय बादके कुछ-एक सूक्तोंके, कहीं कोई महत्त्व-पूर्ण फेरफार होना संभव नहीं हुआ है और जिसके प्रकाशमें वेदका आन्तरिक अभिप्राय सब जगह अपने-आपको इस तरह तुरंत प्रकट कर देता है मानो वह इसके लिये तैयार ही हो । अवश्य ही वेदमें भी प्रतीकोंके परस्पर मिलाने व जोड़नेमें कुछ सीमित स्वतंत्रता है, जैसे कि किसी भी नियत कवितामय रूपकमें होती है,--उदाहरणके लिये, वैष्णवोंकी धार्मिक कविताओंमें; पर इसके पीछे जो सारभूत विचार है वह सदा स्थिर तथा संगत है और परिवर्तित नहीं होता ।

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